पहला अध्याय - श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद First Chapter - Sri Krishna-Arjuna Dialogue
धृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ॥ (१)
भावार्थ : धृतराष्ट्र ने संजय से पूछा, "धर्मक्षेत्र, अर्थात् वह भूमि जो धार्मिक कार्यों के लिए प्रसिद्ध है, कुरुक्षेत्र में पांडव और कौरव दोनों पक्ष युद्ध के लिए एकत्रित हुए हैं। दोनों पक्ष युद्ध करने के इच्छुक हैं। मेरे (कौरवों के) और पांडवों के सैनिकों ने क्या किया?"
दृष्टा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।
आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत् ॥ (२)
भावार्थ : "तब उस समय दुर्योधन ने पांडवों की सेना को व्यवस्थित (व्यूहबद्ध) देखा और वह आचार्य द्रोणाचार्य के पास गया। राजा दुर्योधन ने द्रोणाचार्य से यह वचन कहा।"
यह श्लोक दुर्योधन के आचार्य द्रोणाचार्य के प्रति सम्मान को दिखाता है, क्योंकि उसने सबसे पहले उनसे संपर्क किया। दुर्योधन ने पांडवों की सेना के मजबूत और संगठित रूप को देखकर आचार्य से मार्गदर्शन और सहायता प्राप्त करने का निर्णय लिया। दुर्योधन का यह कदम यह दर्शाता है कि उसे युद्ध की स्थिति और पांडवों के संगठन से चिंता थी, और वह इस संघर्ष में अपने गुरु से मार्गदर्शन प्राप्त करना चाहता था। (२)
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥ (३)
भावार्थ : "आचार्य! कृपया ध्यान से देखिए, पाण्डुपुत्रों (पांडवों) की विशाल सेना को। यह सेना द्रुपदपुत्र (धृष्टद्युम्न) द्वारा व्यवस्थित की गई है, जो आपके बुद्धिमान शिष्य हैं।"
यह श्लोक दुर्योधन की सेना की रणनीतिक स्थिति के बारे में उसकी चिंता को प्रकट करता है और यह भी दर्शाता है कि पांडवों की सेना एक सशक्त और अच्छी तरह से प्रशिक्षित सेना है। (३)
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ॥ (४)
भावार्थ : इस युद्ध में भीम तथा अर्जुन के समान अनेकों महान शूरवीर और धनुर्धर है, युयुधान, विराट और द्रुपद जैसे भी महान योद्धा है। (४)
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङवः ॥ (५)
भावार्थ : धृष्टकेतु, चेकितान तथा काशीराज जैसे महान शक्तिशाली और पुरुजित्, कुन्तीभोज तथा शैब्य जैसे मनुष्यों मे श्रेष्ठ योद्धा भी है। (५)
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः ॥ (६)
भावार्थ : युधामन्यु जैसे महान पराक्रमी तथा उत्तमौजा जैसे अत्यन्त शक्तिशाली, सुभद्रा का पुत्र अभिमन्यु और द्रौपदी के पुत्रों सहित ये सभी महान योद्धा हैं। (६)
नायका मम सैन्यस्य सञ्ज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते ॥ (७)
भावार्थ : हे ब्राह्मण श्रेष्ठ! हमारी तरफ़ के भी उन विशेष शक्तिशाली योद्धाओं को भी जान लीजिये और आपकी जानकारी के लिये मेरी सेना के उन योद्धाओं के बारे में बतलाता हूँ। (७)
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ॥ (८)
भावार्थ : मेरी सेना में स्वयं आप-द्रोणाचार्य, पितामह भीष्म, कर्ण, कृपाचार्य, अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा जैसे योद्धा है, जो सदैव युद्ध में विजयी रहे हैं। (८)
नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः ॥ (९)
भावार्थ : ऎसे अन्य अनेक शूरवीर भी है जो मेरे लिये अपने जीवन का बलिदान देने के लिये अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित है और यह सभी युद्ध-विधा में निपुण है। (९)
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ॥ (१०)
भावार्थ : इस प्रकार भीष्म पितामह द्वारा अच्छी प्रकार से संरक्षित हमारी सेना की शक्ति असीमित है, किन्तु भीम द्वारा अच्छी प्रकार से संरक्षित होकर भी पांडवों की सेना की शक्ति सीमित है। (१०)
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि ॥ (११)
भावार्थ : अत: सभी मोर्चों पर अपनी-अपनी जगह स्थित रहकर आप सभी निश्चित रूप से भीष्म पितामह की सभी ओर से सहायता करें। (११)
तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः ।
सिंहनादं विनद्योच्चैः शंख दध्मो प्रतापवान् ॥ (१२)
भावार्थ : तब कुरुवंश के वयोवृद्ध परम-प्रतापी पितामह भीष्म ने दुर्योधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए सिंह-गर्जना के समान उच्च स्वर से शंख बजाया। (१२)
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ॥ (१३)
भावार्थ : तत्पश्चात् अनेक शंख, नगाड़े, ढोल, मृदंग और सींग आदि बाजे अचानक एक साथ बज उठे, उनका वह शब्द बड़ा भयंकर था। (१३)
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शंखौ प्रदध्मतुः ॥ (१४)
भावार्थ : तत्पश्चात् दूसरी ओर से सफेद घोड़ों से युक्त उत्तम रथ पर आसीन योगेश्वर श्रीकृष्ण और अर्जुन ने भी अलौकिक शंख बजाए। (१४)
पौण्ड्रं दध्मौ महाशंख भीमकर्मा वृकोदरः ॥ (१५)
भावार्थ : हृदय के सर्वस्व ज्ञाता श्रीकृष्ण ने "पाञ्चजन्य" नामक, अर्जुन ने "देवदत्त" नामक और भयानक कर्म वाले भीमसेन ने "पौण्ड्र" नामक महाशंख बजाया। (१५)
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ ॥ (१६)
भावार्थ : हे राजन! कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने "अनन्तविजय" नामक और नकुल तथा सहदेव ने "सुघोष" और "मणिपुष्पक" नामक शंख बजाए। (१६)
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः ॥ (१७)
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते ।
सौभद्रश्च महाबाहुः शंखान्दध्मुः पृथक्पृथक् ॥ (१८)
भावार्थ : श्रेष्ठ धनुष वाले काशीराज और महारथी शिखण्डी एवं धृष्टद्युम्न तथा राजा विराट और कभी न हारने वाला सात्यकि, राजा द्रुपद एवं द्रौपदी के पाँचों पुत्र और बड़ी भुजा वाले सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु आदि सभी ने अलग-अलग शंख बजाए। (१७-१८)
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन् ॥ (१९)
भावार्थ : उस भयंकर ध्वनि ने आकाश और पृथ्वी को गुंजायमान करते हुए धृतराष्ट्र के पुत्रों के हृदय में शोक उत्पन्न कर दिया। (१९)
अर्जुन उवाचः
अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः ।
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः ॥ (२०)
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ॥ (२१)
भावार्थ : हे राजन्! इसके बाद हनुमान से अंकित पताका लगे रथ पर आसीन पाण्डु पुत्र अर्जुन ने धनुष उठाकर तीर चलाने की तैयारी के समय धृतराष्ट्र के पुत्रों को देखकर हृदय के सर्वस्व ज्ञाता श्री कृष्ण से प्रार्थना करते हुए कहा कि हे अच्युत! कृपा करके मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खडा़ करें। (२०-२१)
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे ॥ (२२)
भावार्थ : जिससे मैं युद्धभूमि में उपस्थित युद्ध की इच्छा रखने वालों को देख सकूँ कि इस युद्ध में मुझे किन-किन से एक साथ युद्ध करना है। (२२)
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ॥ (२३)
भावार्थ : मैं उनको भी देख सकूँ जो यह राजा लोग यहाँ पर धृतराष्ट् के दुर्बुद्धि पुत्र दुर्योधन के हित की इच्छा से युद्ध करने के लिये एकत्रित हुए हैं। (२३)
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ॥ (२४)
भावार्थ : संजय ने कहा - हे भरतवंशी! अर्जुन द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर हृदय के पूर्ण ज्ञाता श्रीकृष्ण ने दोनों सेनाओं के बीच में उस उत्तम रथ को खड़ा कर दिया। (२४)
उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान् कुरूनिति ॥
भावार्थ : इस प्रकार भीष्म पितामह, आचार्य द्रोण तथा संसार के सभी राजाओं के सामने कहा कि हे पार्थ! युद्ध के लिए एकत्रित हुए इन सभी कुरु वंश के सद्स्यों को देख। (२५)
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा ॥ (२६)
भावार्थ : वहाँ पृथापुत्र अर्जुन ने अपने ताऊओं-चाचाओं को, दादों-परदादों को, गुरुओं को, मामाओं को, भाइयों को, पुत्रों को, पौत्रों को और मित्रों को देखा। (२६)
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान् बन्धूनवस्थितान् ॥ (२७)
भावार्थ : कुन्ती-पुत्र अर्जुन ने ससुरों को और शुभचिन्तकों सहित दोनों तरफ़ की सेनाओं में अपने ही सभी सम्बन्धियों को देखा। (२७)
अर्जुन उवाच
कृपया परयाविष्टो विषीदत्रिदमब्रवीत् ।
दृष्टेवमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ॥ (२८)
भावार्थ : तब करुणा से अभिभूत होकर शोक करते हुए अर्जुन ने कहा - हे कृष्ण! युद्ध की इच्छा वाले इन सभी मित्रों तथा सम्बन्धियों को उपस्थित देखकर। (२८)
वेपथुश्च शरीरे में रोमहर्षश्च जायते ॥ (२९)
भावार्थ : मेरे शरीर के सभी अंग काँप रहे हैं और मुख सूखा जा रहा है, और मेरे शरीर के कम्पन से रोमांच उत्पन्न हो रहा है। (२९)
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ॥ (३०)
भावार्थ : मेरे हाथ से गांडीव धनुष छूट रहा है और त्वचा भी जल रही है, मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है, इसलिए मैं खड़ा भी नही रह पा रहा हूँ। (३०)
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥ (३१)
भावार्थ : हे केशव! मुझे तो केवल अशुभ लक्षण ही दिखाई दे रहे हैं, युद्ध में स्वजनों को मारने में मुझे कोई कल्याण दिखाई नही देता है। (३१)
किं नो राज्येन गोविंद किं भोगैर्जीवितेन वा ॥ (३२)
भावार्थ : हे कृष्ण! मैं न तो विजय चाहता हूँ और न ही राज्य और सुखों की इच्छा करता हूँ, हे गोविंद! हमें ऐसे राज्य, सुख अथवा इस जीवन से भी क्या लाभ है। (३२)
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ॥ (३३)
भावार्थ : जिनके साथ हमें राज्य आदि सुखों को भोगने की इच्छा हैं, जब वह ही अपने जीवन के सभी सुखों को त्याग करके इस युद्ध भूमि में खड़े हैं। (३३)
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः संबंधिनस्तथा ॥ (३४)
भावार्थ : गुरुजन, परिवारीजन, पुत्रगण, पितामह, मामा, ससुर, पौत्रगण, साले और सभी सम्बन्धी भी मेरे सामने खडे़ है। (३४)
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ॥ (३५)
भावार्थ : हे मधुसूदन! मैं इन सभी को मारना नहीं चाहता हूँ, भले ही यह सभी मुझे ही मार डालें, तीनों लोकों के राज्य के लिए भी मैं इन सभी को मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या है? (३५)
पापमेवाश्रयेदस्मान् हत्वैतानाततायिनः ॥(३६)
भावार्थ : हे जनार्दन! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें कौन सी प्रसन्नता मिलेगी? बल्कि इन आततायियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा। (३६)
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ॥ (३७)
भावार्थ : हे माधव! अत: मुझे धृतराष्ट्र के पुत्रों को उनके मित्रों और सम्बन्धियों सहित मारना उचित नही लगता है, क्योंकि अपने ही कुटुम्बियों को मार कर हम कैसे सुखी हो सकते हैं? (३७)
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ॥ (३८)
भावार्थ : यधपि लोभ के कारण इन भ्रमित चित्त वालों को कुल के नाश से उत्पन्न होने वाले दोष दिखाई नही देते हैं, और मित्रों से विरोध करने में कोई पाप दिखाई नही देता है।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ॥ (३९)
भावार्थ : हे जनार्दन! हम लोग तो कुल के नाश से उत्पन्न दोष को समझने वाले हैं क्यों न हमें इस पाप से बचने के लिये विचार करना चाहिये। (३९)
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ॥ (४०)
भावार्थ : कुल के नाश से सनातन कुल-धर्म नष्ट हो जाते हैं तथा धर्म का नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल में अधर्म फैल जाता है। (४०)
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः ॥ (४१)
भावार्थ : हे कृष्ण! अधर्म अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियाँ दूषित हो जाती हैं, स्त्रियों के दूषित हो जाने पर अवांछित सन्ताने उत्पन्न होती है। (४१)
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ॥ (४२)
भावार्थ : अवांछित सन्तानों की वृद्धि से निश्चय ही कुल में नारकीय जीवन उत्पन्न होता है, ऎसे पतित कुलों के पितृ गिर जाते है क्योंकि पिण्ड और जल के दान की क्रियाऎं समाप्त हो जाती है। (४२)
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ॥ (४३)
भावार्थ : इन अवांछित सन्तानो के दुष्कर्मों से सनातन कुल-धर्म और जाति-धर्म नष्ट हो जाते हैं। (४३)
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ॥ (४४)
भावार्थ : हे जनार्दन! जिनका कुल-धर्म नष्ट हो गया है, ऐसे मनुष्यों का अनिश्चित काल तक नरक में रहना पडता है, ऐसा हम सुनते आए हैं। (४४)
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ॥ (४५)
भावार्थ : ओह! कितने आश्चर्य की बात है कि हम लोग बुद्धिमान होकर भी महान पाप करने को तैयार हो गए हैं, जो राज्य और सुख के लोभ से अपने प्रियजनों को मारने के लिए आतुर हो गए हैं। (४५)
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ॥ (४६)
भावार्थ : यदि मुझ शस्त्र-रहित विरोध न करने वाले को, धृतराष्ट्र के पुत्र हाथ में शस्त्र लेकर युद्ध में मार डालें तो भी इस प्रकार मरना मेरे लिए अधिक श्रेयस्कर होगा। (४६)
एवमुक्त्वार्जुनः सङ्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत् ।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ॥ (४७)
भावार्थ : संजय ने कहा - इस प्रकार शोक से संतप्त हुआ मन वाला अर्जुन युद्ध-भूमि में यह कहकर बाणों सहित धनुष को त्याग कर रथ के पिछले भाग में बैठ गया। (४७)
इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद भगवदगीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में धर्मकर्मयुद्ध-योग नाम का पहला अध्याय संपूर्ण हुआ॥
॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥