कृष्ण एक विराट शक्ति
कृष्ण एक ऐसी विराट शक्ति हैं, जो इस भूमि पर आई थी। भूमि के भार को कम करने के लिए.... कृष्ण के प्रत्येक कार्य मे लोकहित है। वो अपनी प्राणों से प्यारी प्रेयसी से भी सिर्फ इसलिए जुदा हो जाते हैं, कि लोक का हित सर्वोपरि है।
योगेश्वर कृष्ण क्रूर नियति के द्वारा, जन्म से पूर्व ही नियत मृत्यु से जीवन की यात्रा के ध्वजवाहक हैं। भगवान विष्णु के आठवें अवतार कन्हैया, श्याम, गोपाल, केशव, द्वारकेश, द्वारकाधीश, वासुदेव, लड्डूगोपाल, सुदर्शनचक्रधारी, लीलाधर, चारभुजानाथ और भी कितने ही नामों से लोक के हृदय के स्पंदन है।
कृष्ण एक निष्काम योगी है, एक आदर्श दार्शनिक स्थितप्रज्ञ दैवीय संपदाओं से सुसज्जित महान युगपुरुष, योगा अवतार और सभी कलाओं में संपूर्ण माने जाते हैं।
कृष्ण योगेश्वर, श्रेष्ठ नर्तक, संगीतज्ञ, कूटनीतिज्ञ, दृष्टा, ज्ञानी, दार्शनिक उपदेशक, नीतिकुशल, सर्वश्रेष्ठ दूत, योद्धा, और प्रेमी, मित्र, सखा, मनोचिकित्सक, वक्ता, दूरदर्शी और वस्तुतः ऐसे युगप्रवर्तक है, जिन्होंने बाद के सभी कालखंडों की धारा ही बदल दी, और लोक में अनूठी प्रेमाभक्ति का भी प्रवर्तन कर दिया।
जन्म से पूर्व ही कृष्ण के लिए कंस द्वारा मृत्य निर्धारित कर दी गई थी। परंतु जीवन के संघर्ष में काल की क्रूर नियति से बंधे श्री कृष्ण पग पग पर कठोरतम संघर्षों के बीच भी किस प्रकार राह बनाते हैं और विजय को सुनिश्चित करते हैं यह उनका संपूर्ण जीवन चरित्र हमें शिक्षा देता है।
पूतना का वध हो, चाहे कालिया नाग का दमन या अन्य आततायी राक्षसों का दमन या देवेश्वर इंद्र के दर्प और घमंड का मान मर्दन...चाहे कंस और जरासंध और कालयवन का अंत....कृष्ण धरा के भार को कम करने के लिए अर्जुन को अपना माध्यम बनाकर तत समय के सभी अधर्म की राह में खड़े महावीरों को जिस प्रकार परास्त कर पराभव प्राप्त करवाते हैं, वह अनुकरणीय है। महाभारत के युद्ध में कुरूक्षेत्र में निराश, हैरान, परेशान और अवसाद क्षीण मनोबल में आए हुए महावीर श्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन को धर्म, अर्थ, काम, भक्ति, कर्म, ज्ञान और योग की कालजयी शिक्षा देते हुए कृष्ण युगों युगों तक संपूर्ण जनमानस के अंतस में एक विलक्षण स्थान बना लेते हैं....
कृष्ण वह हैं, जो परंपरागत अंध श्रद्धा से चली आ रही मिथ्या कर्मकांड बन चुकी भक्ति में क्रांति लाकर बौद्धिक प्रेमा भक्ति की नींव रखते हैं। जो गीता के रूप में वेद पुराण और उपनिषदों का दुग्धामृत जगत के कल्याण के लिए हमारे सम्मुख रखते हैं। ओम शब्द कृष्ण का पांचाल्य शंखनाद है।
कृष्ण जन सामान्य को पग पग पर निष्काम कर्म का संदेश देते हुए फल की चाह न करके प्रकृति और ईश्वर का पाठ पढ़ाते हैं।
कृष्ण वे हैं जो अन्याय और अधर्म के सामने धर्म की स्थापना हेतु युद्ध को सदैव तत्पर हैंए चाहे सामने पितामह, मामाए मौसी का बेटा भाई हो या समधी। लोकहित उनके लिए सर्वोपरि है।
कृष्ण वो हैं जो लाखो सैनिकों की जान बचाने के लिए रणछोड़ बनने का कलंक भी सहर्ष स्वीकार करते हैं। कृष्ण वे हैं जो चिड़िया के बच्चों की जान बचाने को भी महाभारत के पूर्व अपना धर्म समझते हैं।
वे शरणागतवत्सल हैं, जो अपने भक्तों यथा द्रोपदी, भीष्म, अर्जुन, कुंती, विदुर, सभी का मान रखते हैं। कौरवों की तरह सौ तरह के विकार प्रतिदिन हम पर हमला करते है, पर हम उनसे लड़ सकते हैं, जीत सकते हैं, तब, जबकि कृष्ण हमारे हृदय रूपी रथ की सवारी करते हैं। कृष्ण हमारी आंतरिक आवाज आत्मा और मार्गदर्शक प्रकाश है। उनके हाथों में जीवन डोर सौप देने पर फिर चिंता की कोई आवश्यकता भी नहीं। राम की मर्यादा का जो पालन करेगा, वही श्रीकृष्ण की रासलीला का रहस्य भी समझ सकता है, भागवत में इसीलिए रामकथा पहले आती है।
कृष्ण के जीवन की प्रत्येक घटना में विरोधाभास है, और यही उनकी विलक्षणता है, ज्ञानी ध्यानी उनको खोजते हुए हार जाते हैं, जो न ब्रह्म में मिलते हैं, न पुराणों में और न वेद की ऋचाओं में वे मिलते हैं, बृज भूमि की किसी कुंज निकुंज में राधारानी के चरणों को दबाते हुए, ये उनके जन्म की विलक्षणता है कि वे अजन्मा होकर भी जन्म लेते हैं। सर्वशक्तिमान होकर भी कंस के बंदीगृह में जन्मते हैं। वे एक हाथ मे दुष्टो के संहार के लिए हाथ मे सुदर्शन रखते हैं, तो दूसरे हाथ मे माधुर्य और प्रीति की रक्षा के लिए बांसुरी रखते हैं। एक शौर्य का प्रतीक है तो दूसरी मन चित्त और आत्मा को मुग्ध कर देने वाली बांसुरीए उनके चरित्र में चक्र और बांसुरी का अद्भुत और विलक्षण समन्वय है और संतुलन है। कृष्ण को परिभाषित करना किसी किसी की भी लेखनी के बस की बात नहीं जितना भी लिखा जाए उतना ही कम है। कभी वह प्रेम के सागर नजर आते हैं, कहीं चेतना के चिंतन, प्रीति के सागर हैं तो कहीं मीरा की आत्मा के मंथन हैं.... पर वह अपरिभाषित हैं कृष्ण ज्ञानियों के भागवत भी है तो गोकुल की गायों के ग्वाले भी हैं माखन के चोर भी हैं तो गोपियों के वस्त्र और उनके मन और आत्मा के चोर भी वही हैं। वे इस सृष्टि के एकमात्र ऐसे चौर्यकला निपुण चोर हैं,जिनकी समस्त विश्वको प्रतीक्षा है कि चाहे वे उनका सर्वस्व चुरा ले, पर अपने दया ममता करुणा की छांव वे उसे दे दें..... कृष्ण सम्पूर्ण हैं !!
कृष्ण कालयवन, जरासंध, कंस और समस्त कौरवों के लिए विध्वंसक हलाहल है, तो भक्तों के लिए वे अमृत का प्याला है। पर फिर वे अपरिभाषित है। वे सुदामा के मित्र हैं तो वे अर्जुन के सखा भी हैं, वे प्रेमविहीन अर्पित दुर्योधन के 56 भोग ठुकरा देते हैं तो प्रेमवश अर्पित विदुर पत्नी के केले के छिलकों को भी सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं। कृष्ण द्रोपदी के रक्षक की भूमिका में हैं तो कंस और शिशुपाल जैसो के भक्षक भी हैं।
कृष्ण अर्जुन की मित्रता में सारथी भी हैं तो कृष्ण ही पांडवो के दूत, वाहक और संवाहक भी हैं। कृष्ण योगेश्वर भी हैं, तो लीलाधर भी हैं, कृष्ण जहां भक्तवत्सल हैं तो अपने भक्तों का मान रखने के लिए अपनी ही की प्रतिज्ञा को तोड़ने के लिए आबद्ध भी है। कृष्ण ही एकमात्र देवेश्वर हैं जो समूचे विश्व के समक्ष स्वयं घोषणा करते हैं कि हां& ^^मैं ईश्वर हूं**
वे देवकी के शिशु भी हैं, वे यशोदा के ललना भी हैं, गोपियों के प्रियतम भी है] रूकमिणी के मान भी हैं।
कृष्ण श्रीराधा के प्रीतम भी हैं, रुकमणी के श्री हैं तो, सत्यभामा के श्रीतम भी हैं.....और वही कृष्ण मीरा के प्रीतम भी है.....वही जयदेव के गीतगोविन्द भी हैं तो वही सूरदास रसखान और मीराके गीत भी हैं...वे संगीत सम्राट भी हैं, वे जनमानस की आत्मा को चुराने वाले जगत के सबसे बड़े छलिया भी हैं, जो सभी के होकर भी किसी के नहीं है। हाथो में चक्र गदा और मुख पर मुस्कान समेटे, उनके सबसे घातक अस्त्र मुस्कान की समस्त विश्व के पास कोई काट नहीं है।
वे वासुदेव के लाल भी हैं, नंद के गोपाल भी हैं, वे सहज नदियों से बहते सागर से गहरे भी हैं, तो सरस् झरने से बहते प्रकृति के संगीत भी हैं, वे आत्म तत्वभी है तो वह प्राण तत्व भी हैं, वही प्राणों के ईश्वर भी हैं, तो वही... "परमात्मा भी है" ...!!
कृष्ण आध्यात्मिक चेतना हैं, युग प्रवर्तक हैं कृष्ण जगतगुरु हैं, कृष्ण प्रकृति प्रेमी हैं, कृष्ण ही प्रकृति हैं, कृष्ण ही एकमात्र पुरुष भी हैं।
कृष्ण हैं तो बृज है, मथुरा है, द्वारका, जगन्नाथपुरी, वृंदावन, गोकुल, बरसाना, गोवेर्धन, नाथद्वारा, चारभुजा, इसकोन है।
कृष्ण ही सृष्टि भी हैं, कृष्ण ही भुक्ति भी हैं....कृष्ण ही मुक्ति भी हैं....कृष्ण ही नियति भी हैं, कृष्ण ही प्रकृति भी हैं, कृष्ण ही शक्ति हैं तो कृष्ण ही एकमात्र भक्ति भी हैं।
वे ही संहारक भी हैं, वही उद्धारक भी हैं।
वे स्थिरचित्त, स्थितप्रज्ञ योगी भी हैं.. तो वे समस्त जगत के जीवो को धारण करने वाले विश्ववात्मा... परमेश्वर भी है।।
अब तुम ही बता दो कृष्ण कि तुम क्या हो।
इस सृष्टि के...इस जगत के....पंच तत्वों के.…. पंचप्राण के... पंचकोश के सब कुछ तो तुम ही हो...
इस जगत की समस्त माया को अपनी अंगुली पर धरे...... तुम ही तो हो,..... हां तुम ही हो .... कृष्ण