शारदीय नवरात्र
आश्विन शुक्ल प्रतिपदा 22 सितम्बर सोमवार से 01 अक्टूबर बुधवार महानवमी तक दस दिन रहेंगे शारदीय नवरात्र।
लोकाचार में नवरात्रों में तिथि का बढ़ना और श्राद्धपक्ष में तिथि का घटना श्रेयस्कर माना जाता है।
इस वर्ष नवरात्रों में तिथिवृद्धि हुई है और श्राद्धों में तिथिक्षय जो शुभकारक है।
नवरात्रों में सङ्कल्प, घटस्थापन, देवी का आवाहन, पूजन, विसर्जन आदि प्रातःकाल विशेष शुभ कहे गये हैं।
घटस्थापना में प्रतिपदा को दिन के तीन भाग वाला प्रातः काल ग्रहण किया गया है अर्थात् सूर्योदय से दश घटी अर्थात् चार घंटे तक प्रातःकाल कहा गया है।
चित्रा-वैधृति नक्षत्रादिक का कोई दोष हो तो अभिजित मुहूर्त भी श्रेष्ठ होता है।
स्थानीय समयानुसार दिन के ठीक बारह बजे अभिजित मुहूर्त का मध्यम रहता है इसके आगे पीछे एक-एक घटी अभिजित रहता है जो सब दोषों का शमन करता है। दिनमान के आधार पर अभिजित् मान घटता-बढ़ता रहता है।
द्विस्वभाव राशियों के लग्न में भी संकल्प घटस्थापनादि करना अतिशय शुभ कहा गया है।
कन्या राशि की सूर्य संक्रांति में महालय श्राद्ध एवं कन्या राशि की संक्रांति में शारदीय नवरात्र आना जनता के लिए अतिशय कल्याणकारी कहा गया है।
वर्षों बाद घटस्थापना में चित्रा वैधृति आदि किसी भी प्रकार की कोई दोषपूर्ण स्थिति नहीं है।
नवरात्र में नित्यप्रति नवदुर्गाओं की पूजा करें न कि एक-एक की अलग अलग दिन।
हाथी पर सवार होकर सबका मंगल करने आ रही हैं इस बार मातारानी।
आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से लेकर महानवमी पर्यन्त किये जाने वाले दैवीय पूजा कर्म नवरात्र कहलाते हैं। वर्ष में चार बार आते हैं नवरात्र। आश्विन नवरात्र का विशेष महत्व है।
रुद्रयामल का वचन द्रष्टव्य है -
आश्विने मासि सम्प्राप्ते शुक्ले पक्षे विधेस्तिथिम्।
प्रारभ्य नवरात्रं स्याद् दुर्गा पूज्या तु तत्र वै।।
देवी पुराण में कहा है कि आश्विन प्रतिपदा को प्रातः स्नान के पानी में तिल तैल मिलाकर स्नान करना चाहिए। उसके बाद पूर्वाह्न में ही मां दुर्गा की पूजा करें-
आश्विनस्य सिते पक्षे प्रतिपत्सु यथाक्रमम्।
सुस्नातस्तिलतैलेन पूर्वाह्ने पूजयेच्छिवाम्।।
सर्वकार्यसिद्धि के लिए नवमी तक पूजा कही है -
आश्विने प्रतिपन्मुख्या: पुण्यास्तु तिथयो नव।
देविका पूजने प्रोक्ता: सर्वकामफलप्रदा:।।
देवी पुराण में विशेष कहा है-
आश्विने मासि मेघान्ते महिषासुरमर्द्दिनीम्।
देवीं सम्पूजयित्वा ये अर्द्धरात्रेऽष्टमीषु च।।
मेघान्त अर्थात् शरत्कालीन नवरात्र में महिषासुरमर्दिनी की पूजा करें।
आचार्य रघुनाथभट्ट की पंक्ति भी इसी की पुष्टि करती हैं-
आश्विने मासि शुक्ले तु कर्तव्यं नवरात्रकम्।
प्रतिपदादि क्रमेणैव यावच्च नवमी भवेत्।।
चतुर्वर्ग चिन्तामणि में महर्षि धौम्य का वचन लिया है -
नवमीतिथि पर्यन्तं वृद्ध्या पूजाजपादिकम्।।
नवरात्र में प्रतिदिन नवदुर्गाओं की पूजा करनी चाहिए। नवदुर्गाओं के अनेकों भेद हैं। अत्यधिक प्रचलित रूप में प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी आदि नवदुर्गाओं की नित्य प्रति पूजा करें न कि प्रतिदिन एक-एक की।-
मासि चाश्वयुजे शुक्ले नवरात्रे विशेषतः।
सम्पूज्या नवदुर्गां च नक्तं कुर्य्यात्समाहित:।।
डामर तन्त्र में भी कहा है-
शरदृताविषे मासि शुक्लपक्षे नृपोत्तमे।
प्रतिपत्तिथिमारभ्य नवचण्डीं समारभेत्।।
हां नवरात्र में प्रतिदिन एक वर्ष से बड़ी दो तीन चार... वर्ष की कन्याओं का क्रमशः पूजन शुभकारक है।-
एकैकां पूजयेत् कन्यामेकवृद्धां तथैव च।
द्विगुणं त्रिगुणं वाऽपि प्रत्येकं नवकं तथा।।
एकवर्षा तु या कन्या पूजार्थं तां विवर्ज्जयेत्।।
सभी जाति की अपुष्पा कन्याओं की पूजा कर सकते हैं।
नवरात्र या नवरात्रि में रात्रि शब्द तिथिपरक है न कि दिनपरक। लोकाचार से नवरात्र में तिथिवृद्धि होना शुभ और तिथिक्षय होना अशुभ माना जाता है परन्तु डामरतन्त्र में नवरात्र में दिनों की संख्या न्युनाधिक हो सकती है ऐसा भी कहा है। -
तिथिवृद्धौ तिथिह्रासे नवरात्रमपार्थकम्।।
अपार्थकम्-निरर्थकम्।
वैसे शिष्टाचार है कि नवरात्र में तिथि की वृद्धि और श्राद्ध में तिथि का ह्रास अत्यन्त शुभ कहा गया है।
नवरात्रों में अपनी कुल परम्परा को विशेष महत्व देना चाहिए। अपनी-अपनी कुल परम्परा के अनुसार ही व्रत उपवास स्तोत्र पाठ जप आदि के नियमों का पालन करना चाहिए।
शक्ति सामर्थ्य होने पर भी कुल परम्परा से अधिक नहीं करें। नवरात्रों में देवी पूजा की ही प्रधानता है अन्य तो अंगीभूत कर्म हैं। अतः सभी जाति - धर्मानुरागियों को शुभमुहूर्त में घटस्थापन कर नवमी पर्यन्त दुर्गास्वरूपा कुलदेवी की यथाशक्ति पुष्पादिक से पूजा करनी चाहिए।
व्रतखण्ड में स्पष्ट लिखा है कि -
यस्य यस्य हि या देवी कुलमार्गेण संस्थिता।
तेन तेन च सा पूज्या नवरात्रे समन्वित:।।
नानाविधै: सुकुसुमै: पूजयेत् कुलमातरम्।।
सम्भव हो तो नवरात्र करने वालों को दिन में एक बार (एकभक्तव्रत) भोजन करना चाहिए अथवा रात्रि प्रदोषकाल में (नक्तव्रत) एक बार भोजन करें या तथा संकल्पित उपवास रखते हुए नवरात्र करने चाहिएं।
नवरात्रों में अष्टमी और नवमी के दिन व्रत उपवास का विशेष महत्त्व कहा है। इस दिन व्रतादि करने से जीवन में मनोभिलषित इच्छाओं की पूर्ति के साथ दीर्घायुष्य यशोवृद्धि वंशवृद्धि राज्यलाभ और अनन्त धन सम्पदा की प्राप्ति होती है।
आश्विन शुक्ल प्रतिपदा को सूर्यसंक्रांति, प्रतिपदाक्षय, चित्रानक्षत्र, वैधृतियोग हो तो प्रतिपदा के प्रारम्भ की सोलह/बारह घटियां त्याज्य कही गयी हैं। वैसे ये सब अश्व नीराजनादि विषयक घट स्थापन में ही त्याज्य है। सामान्य नवरात्र में नहीं।
महर्षि मनु का वाक्य-
चित्रा वैधृति सङ्क्रांतौ प्रतिपच्च क्षयं गता।
तथा पूर्वयुता कार्या त्यक्वा षोडश नाडिका।।
वहीं देवीपुराण का वचन-
आद्यास्तु नाडिकास्त्याज्या: षोडश द्वादशाऽपि वा।
नवरात्र में देवीपूजार्थ घट स्थापना के लिए धर्मग्रन्थों की दृष्टि से प्रातःकाल का विशेष महत्व है। प्रश्न पैदा होता है कि नवरात्र स्थापन में प्रातःकाल किसे कहें?
नवरात्र स्थापन में ऋषिजनों ने दिन के तीन विभाग ग्रहण किये हैं न कि दो चार पांच या पन्द्रह भाग। स्थानीय सूर्योदय से दस घटी अर्थात् चार घंटे तक प्रातःकाल या पूर्वाह्न काल कहा गया है।
प्रतिपदा के वार से मां दुर्गा के वाहन का विचार किया जाता है और शारदीय नवरात्रि का समापन विजयादशमी के दिन होता है। उस दिन के वार के अनुसार वाहन पर सवार होकर मातारानी प्रस्थान करती हैं।शास्त्रों के अनुसार मातारानी के आगमन - प्रस्थान पर वाहनों का निर्णय इस प्रकार करना चाहिए।-
वैसे तो बहुभुजी महिषासुरमर्दिनी मां जगदम्बा सिंहवाहिनी हैं ही। परन्तु नवरात्र जिस वार से प्रारम्भ होते हैं उसके आधार पर माता का वाहन कौन-सा होगा और उसका प्रभाव कैसा होगा यह भी विचारणीय है-
शशिसूर्ये गजारूढ़ा शनिभौमे तुरङ्गमे।
गुरौ शुक्रे च दोलायां बुधे नौका प्रकीर्तिता॥
अर्थात् यदि नवरात्र रविवार या सोमवार से प्रारम्भ हों तो माँ दुर्गा हाथी पर सवार होकर पधारती हैं तो आने वाला समय सुखद शुभफलप्रद रहता है, वर्षा की प्रचुरता, अन्न जल फल की अनुकूलता समर्घता और समृद्धि रहती है।
और यदि नवरात्र शनिवार या मंगलवार से प्रारम्भ हों तो मातारानी घोड़े पर सवार होकर आती हैं, तो निर्णय में उतावलापन, शीघ्रता, युद्ध, क्रोध वाद-विवाद, अशांति और राजनीतिक अस्थिरता के संकेत करती हैं।
और यदि नवरात्र की शुरुआत गुरुवार या शुक्रवार को हो तो मातारानी पालकी (दोला-डोली) पर बैठकर आती हैं। तो सर्वत्र शान्ति और मिश्रित फल होता है। सनातनियों के लिए समय सुखद शुभफलप्रद रहता है।सामान्य संकटों का भी सामना करना पड़ता है।
और यदि नवरात्र बुधवार को प्रारम्भ हों तो जगज्जननी मातारानी का नौका (कश्ती/नाव) पर सवार होकर आती हैं। जो सर्वत्र सुख, शांति समृद्धि और मनोकामनाओं की पूर्ति का सद्संकेत है। देश में युवाओं को अवसर मिलते हैं। नेतृत्व में भी युवा स्वरूप दिखाई देता है। सर्वत्र आधुनिकता भी दिखाई देती है।
आगमन के वाहन की भांति प्रस्थान के वाहन का भी विशेष महत्व कहा गया है।
कुछ विद्वान् महानवमी के वार के अनुसार तो कुछ विद्वान् विजयादशमी के वार के अनुसार माँ के वाहन का फल लिखते हैं। विजयादशमी के वार के अनुसार ही प्रस्थान का वाहन महत्व रखता है-
शशिसूर्यदिने यदि सा विजया महिषागमने रुजशोककरा।
शनिभौमदिने यदि सा विजया चरणायुधयानकरी विकला॥
बुधशुक्रदिने यदि सा विजया गजवाहनगा शुभवृष्टिकरा।
सुरराजगुरौ यदि सा विजया नरवाहनगा शुभसौख्यकरा॥
अर्थात् विसर्जन रविवार या सोमवार को हो, तो मातारानी का वाहन महिष (भैंसा) होता है। रविवार या सोमवार को नवरात्र की समाप्ति रोग दोष दुःख दारिद्र और समाज में अशांति का संकेत माना गया है।
यदि शनिवार या मंगलवार को नवरात्र समापन हों तो मातारानी मुर्गे की सवारी पर प्रस्थान करती हैं। यह चिन्ता-तनाव, विकल उथल-पुथल और आपदाओं विपदाओं का प्रतीक माना जाता है।
बुधवार या शुक्रवार को नवरात्र का विसर्जन हो तो मातारानी हाथी पर सवार होकर जाती हैं। इसे अत्यन्त शुभकारक माना जाता है। सुख समृद्धि और सम्पन्नता का प्रतीक है।
और यदि नवरात्रों का विसर्जन गुरुवार को हो तो मातारानी मनुष्यों द्वारा चालित पालकी में प्रस्थान करती हैं। मां का डोली में प्रस्थान सुख शान्ति और सामाजिक सौहार्द को प्रदान करता है।
शारदीय नवरात्र घटस्थापना का शुभ मुहूर्त -
आप जहां भी नवरात्र कर रहे हैं वहां के सूर्योदय से चार घंटे तक प्रातःकाल अर्थात् पूर्वाह्न काल में नवरात्र के लिए संकल्प करते हुए घटस्थापन कर देवी का ध्यान करते हुए नवरात्रों का शुभारम्भ कर सकते हैं।
जयपुर में सूर्योदय 6.20 पर हो रहा है, जयपुर में प्रातः काल अर्थात् पूर्वाह्न काल 6.20 से 10.20 तक रहेगा जो नवरात्र में घटस्थापनादि के लिए सर्वश्रेष्ठ है। धर्म ग्रंथ में नवरात्र स्थापना प्रातःकाल में ही श्रेयस्कर कह गयी है।
घट स्थापना के लिये द्विस्वभाव कन्या लग्न भी शुभ रहता है। जयपुर में सूर्योदय से 6.11 तक कन्या लग्न में नवरात्र स्थापना और भी श्रेष्ठ हैं।
आजकल नवरात्र आदि शुभ कार्यों में शुभकारक चौघड़ियों का भी महत्व बढ़-चढ़ कर देखा जा रहा है।
जयपुर में सूर्योदय से 7.50 तक अमृत के चौघड़िये में भी नवरात्र स्थापना सर्वसिद्धिकारक है।
एवं बृहस्पति का शुभ का चौघड़िया 9.21 से 10.50 तक रहेगा। इसमें से प्रातः काल तक का 10.20 तक का शुभ समय ग्रहण किया जा सकता है।
शुभमुहूर्तों में वार होरा का भी विशेष महत्व है। सोमवार को पहली होरा चन्द्रमा की होती है जो अमृतमयी कही गयी है।
चन्द्रमा की होरा 6.20 से 7.20 तक रहेगी। 8.20 से 9.20 तक बृहस्पति की होरा भी घटस्थापनादि में ग्राह्य है।
नवरात्रारम्भ अर्थात् घटस्थापनादि में प्रातः काल का सर्वश्रेष्ठ शुभ मुहूर्त ग्रहण नहीं हो पा रहा हो तो विशेष परिस्थितियों में मध्याह्न अभिजित् मुहूर्त ग्रहण कर सकते हैं। वैसे इस बार चित्रा-वैधृति आदि दोषपूर्ण योगायोग नहीं हैं फिर भी विकल्प के रूप में 11. 56 से बजे से 12. 44 तक अभिजित् मुहूर्त को ग्रहण कर सकते हैं।
सर्वविध शुभता चाहने वालों को समयाभाव में भी सूर्योदय से पहले और अभिजित मुहूर्त के बाद नवरात्र स्थापना नहीं करना चाहिए।
नवरात्रों में दुर्गासप्तशती के पाठ का विशेष महत्व है। दीपक में देवी का आवाहन करें। दुर्गा सप्तशती के साथ ललिता सहस्रनाम स्तोत्र, दुर्गा सहस्रनाम स्तोत्र, दुर्गा कवच, दुर्गाचालीसा आदि के पाठ करना श्रेयस्कर रहता है। वाल्मीकि रामायण, रामचरितमानस का नवाह्न पारायण, सुन्दर काण्ड, रामरक्षा स्तोत्र, श्रीराम स्तवराज आदि के पाठ भी लाभदायक हैं। क्योंकि नवरात्र में ही तो राम -रावण युद्ध के सार्थक परिणाम आते थे। दुर्गा नवमी को हम सबके आराध्य भगवान श्री राम ने रावण को मारकर विजयश्री प्राप्त की थी।
विशेष-
नवरात्र काम्य या नित्य कहे गये हैं। नवरात्रों का जीवन में कभी उद्यापन नहीं होता है। स्त्रियों पुरुषों को अपनी सामर्थ्यानुसार जीवन पर्यन्त नवरात्र करने चाहिए।-
यावज्जीवं नर: स्त्री वा नवरात्रं महाव्रतम्।
कुरुते चण्डिकाप्रीत्यै भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति।।
प्रातः काल का तो महत्व है ही मां की आराधना त्रिकाल करनी चाहिए -
त्रिकालं पूजयेद्देवीं त्रिकालं शिवपूजक:।।
देवी पुराण में और भी कहा है -
त्रिकालं पूजयेद्देवीं जपस्तोत्रपरायण:।।
रुद्रयामल भी कहा है -
प्रत्यहं पूजनं कुर्यात्त्रिकालं भक्ति तत्पर:।।
प्रतिपदा को नवरात्र की तैयारी करने के पश्चात शुभ मुहूर्त में ताम्र या मिट्टी का घट स्थापन करें। विशेष परिस्थितियों को छोड़कर अपराह्न और रात्रि में कलश स्थापना नहीं होता है। रात्रि में जपादि कर सकते हैं।-
नत्वपराह्ने न तु रात्रौ
कलश पर, भित्ति चित्र पर या मण्डप में सुविधानुसार पराम्बा मां भगवती के चित्र पर ध्यान आवाहन करना चाहिए। क्योंकि नवरात्र में देवी पूजा की ही प्रधानता है।-
अत्र देवी - पूजैवप्रधानम्
कन्या राशि के सूर्य को नवरात्र में शुभ माना है। कन्या राशि का सूर्य हो और कन्या राशि का ही चन्द्रमा हो तो शारदीय नवरात्र शुभ होते हैं।-
कन्यां समाश्रिते भानौ...
कन्यासंस्थे रवावीश...
भविष्य पुराण में दुर्गापूजा के लिए सभी स्थान शुभ कहे हैं-
गृहे गृहे शक्तिपरे ग्रामे ग्रामे वने वने।
पूजनीया जनैर्देवी स्थाने स्थाने पुरे पुरे।।
दुर्गापूजा करने के लिए हम सब भारतवासी और सनातनी अधिकारी हैं-
स्नातै: प्रमुदितैर्हृष्टैर्ब्राह्मणै: क्षत्रियैर्विशै:।
शूद्रैर्भक्तियुतैर्म्लेच्छैरन्यैश्च भुवि मानवै:।।
स्त्रीभिश्च कुरुशार्दूल तद्विधानमिदं शृणु।।
विशेष पूजोपचार के अभाव में हम माता के श्री चरणों में श्रद्धा पूर्वक केवल पुष्प और जल चढ़ावें तो भी कार्य सिद्ध होंगे-
गन्धं पुष्पं च धूपं च दीपं नैवेद्यमेव च।
अभावे पुष्पतोयाभ्यां तदभावे तु भक्तित:।।
महाकाली महालक्ष्मी महासरस्वती के विशेष स्थापन, पूजन, बलि और विसर्जन के आदेश सदैव अनुपालनीय है -
मूलेषु स्थापनं देव्या: पूर्वाषाढासु पूजनम्।
उत्तरासु बलिं दद्याद् श्रवणेन विसर्जयेत्।।
मध्याह्न व्यापिनी पंचमी जो पूर्वा ग्राह्य है उसमें उपांग ललिता व्रत।
मूल नक्षत्र में मां सरस्वती का विशेष आवाहन।
पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में मां सरस्वती का विशेष पूजन।
उत्तराषाढा में सरस्वती के निमित्त बलिदान।
महाष्टमी को विशेष दुर्गापूजा,
नवमी को महानवमी और नवरात्र विसर्जन आदि स्वयं प्रसिद्ध हैं।
हो सके तो अष्टमी को हवन प्रारम्भ करके नवमी में पूर्णाहुति, कन्या पूजन और नवरात्र विसर्जन करें। नवरात्र में मां के श्रृंगार नित्य पूजा आरती के दर्शन और अखण्ड ज्योति का भी विशेष महत्व है।
दशमी में आयुध पूजा, अश्वादिक पालक पूजा, विजय मुहूर्त में विजया दशमी - दशहरा पर्व, शमी पूजा और अबूझ मुहूर्त में विशेष यात्रा आदि शुभ कहे गये हैं।
प्रधान पूजा हेतु माता की प्रतिमा कैसी हो का शास्त्रीय निर्णय:-
चित्रे च प्रतिमायां च मृन्मय्यां श्रीफलेऽपि च।
महायोनौ चन्द्रबिम्बे शिलायां कलशे तथा।
पुस्तके पादुके खड्गे महाबिम्बे तथैव च।।
तीर्थक्षेत्रे पुण्यक्षेत्रे गंगायाञ्च प्रपूजयेत्।।
नवरात्र हेतु सभी के लिए कर्तव्य आदेश-
स्वकुलाचारानुसारेण नवरात्रौ चण्डीपूजापाठादि कुर्यात्, ब्राह्मणद्वारा वा कारयेत्।
विजयदशमी को करणीय कर्तव्यता-
यात्रायां विजयकामोऽपराजितापूजामाचरेत्।
विजयदशमी को नगरसीमा का उलंघन करके शमी वृक्ष का अर्चन करें-
गृहित्वा साक्षतामार्द्रां शमीमूलगतां मृदम्।
गीतवादित्र निर्घोषैरानयेत् स्वगृहं प्रति।
ततो भूषणवस्त्रादि धारयेत् स्वजनै: सह।।
विकल्प-
शमीवृक्षाऽलाभे अश्मन्तकपूजा कार्या।
नवरात्र में नित्य पूजा की सरल विधि:-
1. जयन्ती मंगला काली... या
2. सर्व मंगल मांगल्ये... मंत्र से
3. ॐ दुर्गे दुर्गे रक्षिणि नवाक्षर मंत्र
4. ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे नवार्ण मंत्र
आदि से भगवती का ध्यान आवाहन एवं सामग्री अर्पण करनी चाहिए। पूजन कर्म में कुल परम्परा को विशेष महत्व देना चाहिए।
नित्य प्रति प्रार्थना करें कि-
आदिमाया विश्वेश्वरी और आदिपुरुष परम पिता परमेश्वर से प्रार्थना भी करते हैं कि वे हमें स्वस्थ और सुखी समृद्ध रखें। मां भगवती आधिदैहिक आधिदैविक और आधिभौतिक तापत्रयों से मुक्ति प्रदान करने के साथ हम सबकी समस्त अभिलाषाओं को सद्य परिपूर्ण कर सपरिवार सुखी, सफल, समृद्ध, सुदीर्घ नैरुज्यमय यशस्वी जीवन" प्रदान करने की असीम कृपा करें।
विशेष - हां इस दिन पूर्वाह्न काल में मातामह का श्राद्ध करना चाहिए। यदि श्राद्ध कर्म करें तो उनके श्राद्ध बाद ही घटस्थापना करनी चाहिए। शुक्ल पक्षीय श्राद्ध और मातामह का श्राद्ध पूर्वाह्न में ही होता है अपराह्न में नहीं।
नाना नानी का घर में श्राद्ध हो तो माता के लिए पृथक् भोग लगाएं।
जीवन्नरः भद्रशतानि पश्यति
पं. कौशल दत्त शर्मा
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