भीष्मपंचक व्रत एक नवम्बर से ही प्रारम्भ होंगे।
देवताओं का प्रबोधन महोत्सव दो नवंबर रविवार को शुभ है।
तुलसी विवाह दो नवम्बर रविवार को करना विशेष शुभकारी है। जो पूर्णिमा तक कभी भी किया जा सकता है।
वैष्णव मतावलंबियों के लिए दृक् पक्षीय पंचांगों की गणना से 02 नवंबर को एवं सौर-ब्राह्म पक्षीय पंचांगों की गणनाओं से 01 नवम्बर को एकादशी का व्रत श्रेयस्कर है।
सौर पक्षीय पंचांगों के अनुसार स्मार्त एवं वैष्णव मतावलंबियों को एकादशी व्रत 01 नवम्बर को ही करना चाहिए। क्योंकि इनमें तिथि की वृद्धि या क्षय नहीं हो रहा है।
दृक् पक्षीय पंचांगों की गणना में द्वादशी क्षय होने से यह विषय चिन्तनीय है कि एकादशी का व्रत कब करें और तुलसी विवाह किस दिन करें? एकादशी व्रत एक को और तुलसी विवाह दो को करें।
अबूझ मुहूर्त दो नवंबर को ही श्रेयस्कर है। क्योंकि दो नवंबर को देवता जागने के बाद ही तो अबूझ मुहूर्त ग्राह्य होगा।
दृक् पक्षीय पंचांगों के अनुसार एकादशी का व्रत एक नवम्बर को ही है। क्योंकि -
जब द्वादशी तिथि क्षय हो अर्थात् अगले दिन द्वादशी लेश मात्र भी न हो तो सदैव दशमी विद्धा एकादशी व्रत करना चाहिए -
विद्धाप्येकादशी कार्या परतो द्वादशी न चेत्।
ऐसी स्थिति में महारानी गांधारी का प्रसंग विचारणीय नहीं होता है।
और भी द्रष्टव्य है -
एकादशी दशाविद्धां वर्द्धमाने विवर्जयेत्।
यतिभिर्गृहिभिश्चैव सैवोपोष्या सदा तिथि:।।
तीन तिथियों के संयोग का प्रभाव -
एकादशी द्वादशी च रात्रिशेषे त्रयोदशी।
त्र्यहंस्पृशमहोरात्रं तत्र साहस्रिकं फलम्।।
यह व्यवस्था वैष्णव सम्प्रदाय दीक्षित महानुभावों के लिए है न कि स्मार्त मतावलम्बियों के लिए। क्योंकि वैष्णव ही त्रयोदशी में पारण करते हैं। उन्हें दूसरे दिन का व्रत करने से हजारों गुना फल मिलता है।
इसका दूसरा पक्ष द्रष्टव्य है जो हम सब गृहस्थियों के लिए लागू होता है-
एकादशी द्वादशी च रात्रिशेषे त्रयोदशी।
त्र्यहंस्पृशमहोरात्रं नोपोष्यं तत्सुतार्थिभि:।।
(त्रि अहन् स्पर्श) यहां अहन् शब्द तिथि वाचक है।
तीन तिथियों का स्पर्श- दिन में एकादशी युत द्वादशी हो और रात्रि शेष में त्रयोदशी का स्पर्श हो अर्थात् एक अहोरात्र में तीन तिथियों का संयोग हो तो पुत्र सन्तान की सर्वविध शुभता चाहने वाले को ऐसे दिन एकादशी का व्रत नहीं करना चाहिए। दृक् पद्धति से इस बार ऐसी स्थिति बनी हुई है। अतः दो नवंबर को एकादशी व्रत का कोई औचित्य ही नहीं है।
ऐसी स्थिति में स्मार्त मतावलम्बियों के लिए त्रयोदशी पारणा का भी दोष लिखा है। पारण द्वादशी में ही करना चाहिए। इस बार दृक् पक्षीय पंचांगों में एकादशी युत द्वादशी तिथि क्षय होने से अगले दिन त्रयोदशी में पारण का दोष रहेगा।
अतः ऐसी स्थिति में दशमी विद्धा एकादशी का व्रत करने में कोई दोष नहीं है।
अतः स्मार्त मतावलम्बियों को एकादशी व्रत हर परिस्थिति में 01 नवम्बर को ही करना चाहिए।
एकादशी व्रत निर्णय हेतु विशेष व्यवस्था-
एकादशी तिथि क्षय हो तो भी दशमी विद्धा एकादशी का व्रत करना चाहिए।
एकादशी तिथि वृद्धि हो रही हो तो दूसरे दिन वाली एकादशी का व्रत करना चाहिए। क्योंकि ऐसी एकादशी त्र्यहंस्पृशा अर्थात् तीन दिन स्पर्श कर रही होती है।
यहां अहन् शब्द दिन वाचक है।
एकादशी तिथि वृद्धि हो रही हो अर्थात् तीन दिन स्पर्श कर रही हो और मलसंज्ञक वृद्धि वाली एकादशी के दिन द्वादशी क्षय हो रही हो तो ऐसी स्थिति में त्रयोदशी में पारण का विशेष महत्व बताया गया है -
कलाप्येकादशी यत्र परतो द्वादशी न चेत्।
पुण्यं क्रतुशतं प्रोक्तं त्रयोदश्यां तु पारणे।।
द्वादशी क्षय नहीं हो तो गृहस्थियों के लिए त्रयोदशी में पारण का महादोष लिखा है -
पारणं तु त्रयोदश्यां य: करोति नराधम:।
द्वादशद्वादशीर्हन्ति नात्र कार्या विचारणा।।
इस बार देव प्रबोधिनी एकादशी को हरिवासर का अभाव है क्योंकि न तो बुधवार है और न ही उदयकाल में रेवती नक्षत्र है।-
हरिवासर सम्भवेषु आषाढ भाद्रपद कार्तिक मासेसु बुधवार युक्तायामपि द्वाद्श्यां सूर्योदय समये क्रमेणानुराधाश्रवणारेवती नक्षत्राणां योग...
अर्थात् कार्तिकी एकादशी व्रत का पारण रेवती नक्षत्र युत द्वादशी में नहीं करना चाहिए।
एक नवम्बर को पूरे दिन रात रेवती नक्षत्र नहीं है।
द्वादशी को रेवती नक्षत्र आ ही जाए तो विशेष परिस्थितियों में रेवती के चतुर्थ चरण की वर्जना करें।-
कार्तिकशुक्ल द्वादश्यां रेवतीयोग रहितायां पारणं कार्यम्। अपरिहार्य योगे चतुर्थपादो वर्ज्य:।
अतः दो नवंबर को प्रातः 07.32 बाद पूर्वाह्न में देवपूजा से निवृत्त होकर पारण कर लें।
देवोत्थान दो नवंबर को ही श्रेयस्कर है।
रामार्चनचन्द्रिकाकार आदि द्वादशी तिथि रात्रि व्यापिनी होने पर ही देवोत्थापन कहते हैं ऐसी स्थिति दो नवंबर को ही सम्भव है।
सामान्य स्थिति में एकादशी तिथि द्वादशी युत ही श्रेयस्कर है
यथा-
एकादशी द्वादशीयुतैव ग्राह्या।
और भी कहा है -
रुद्रेण द्वादशीयुक्तेति निगमात्।
अर्थात् एकादशी द्वादशी युक्त ही ग्राह्य है।
मानव मात्र को एकादशी का व्रत करना चाहिए। एकादशी व्रत में अन्नग्रहण का महादोष लिखा है।
दशमीविद्धा एकादशी को दोषपूर्ण कहा है। महारानी गांधारी ने भूल से दशमीविद्धा एकादशी करके सौ पुत्रों का दुःख झेला था। यथा-
एकादशी दशाविद्धा गान्धार्या समुपोषिता।
तस्या: पुत्रशतं नष्टं तस्मात्तां परिवर्जयेत्।।
परन्तु इस बार दृक् पद्धति से द्वादशी तिथि क्षय होने से दशमी विद्धा एकादशी व्रत ही श्रेयस्कर है।
तुलसी विवाह कब करें?-
देव प्रबोधिनी (प्रबोधनी) के दिन ही तुलसी विवाह कहा गया है। देव प्रबोधन और तुलसी विवाह द्वादशी युत शुद्ध एकादशी में ही करना चाहिए, जो कि 2 नवम्बर को ही सम्भव है-
तस्यां ( एकादश्याम् ) प्रबोधोत्सव - तुलसीविवाहौ।
तत्र प्रबोधोत्सव: कार्तिकशुक्लैकादश्यां क्वचिदुक्त:।
तुलसी विवाह देव प्रबोधन के पश्चात् ही सुन्दर और शास्त्रीय प्रतीत होता है वो 02 नवंबर को ही सम्भव है।
कतिपय विद्वज्जन देव प्रबोधन-जागरण शुद्ध द्वादशी को कहते हैं।
रामार्चनचन्द्रिकादौ द्वादश्यामुक्त:।
उत्थापनमन्त्रे द्वादशीग्रहणाद् द्वादश्यामेव युक्त:।
सौर ब्रह्म दृक् आदि सभी मतों से देवोत्थापन 2.11.2025 रविवार को और उत्थापन के पश्चात् तुलसी विवाह भी इसी दिन करना शास्त्रीय ही है।
फिर भी कुछ विद्वान् जिस दिन एकादशी का पारणा खोला जाता है उस दिन देवोत्थापन और तुलसी विवाह कहते हैं। कुछ पारणा की पूर्व रात्रि को कहते हैं।
तुलसीविवाह:
वैसे कार्तिक शुक्ल नवमी से एकादशी तक तीन दिन या एकादशी से पूर्णिमा तक किसी भी दिन तुलसी विवाह करने का विधान है। यथा-
नवम्यादि दिनत्रये एकादश्यादि पूर्णिमान्ते यत्र क्वापि दिने कार्तिकशुक्लान्तर्गत विवाहनक्षत्रेषु वा विधानात् अनेककालत्वम्।
और भी कहा है-
तथाहि पारणाहे प्रबोधोत्सवकर्मणा सह तन्त्रवतैव सर्वत्रानुष्ठीयता इति।
अर्थात् पारणा के दिन (द्वादशी के दिन) प्रबोधोत्सव सम्बन्धी कार्यों के साथ एकतन्त्र से तुलसी विवाह भी अनुमोदित है। कहीं पर देवोत्थापन एकादशी की रात्रि में ही विहित है।-
सोऽपि पारणाहे पूर्वरात्रौ कार्य:।
यह भी पारणा के दिन पूर्व रात्रि में करना चाहिए।
तुलसी-विष्णु विवाह में देवप्रबोधिनी एकादशी मुख्य पक्ष है।
वैसे तुलसी विवाह कार्तिक शुक्ल पक्ष की आंवला नवमी से एकादशी तक तथा भीष्म पंचकों ( एकादशी से पूर्णिमा तक पांच दिन, यहां पांच तिथियों का महत्व है न कि नक्षत्र पंचकों का) में कथित हैं ही। अथवा वैवाहिकी नक्षत्रों में शास्त्र विहित है।
स्वयं की पालित तुलसी का विवाह श्रीहरि दामोदर श्रीकृष्ण से साथ सायंकाल गोधूलि लग्न में श्रेष्ठ कहा है।
दोषव्याप्ति की आशंका में "सांकल्पिकविधिना आभ्युदयिक श्राद्ध" के बाद शास्त्रीय विधि से तुलसी विवाह करवाना चाहिए। तुलसी विवाह के लिए सूर्यास्त के समय अर्थात् गोधूलि लग्न श्रेष्ठ माना गया है। और भी सरलता करें तो रात्रि के प्रथम भाग प्रदोषकाल से विलम्ब नहीं करें।-
कृत्वा नान्दीमुखं श्राद्धं सौवर्णं स्थापयेद्हरिम्।
कृत्वा तु रौप्यतुलसीं लग्ने ह्यस्तमिते रवौ।
अस्तमिते -गोधूलिक लग्ने इत्यर्थः, रात्रिप्रथमभागे प्रशस्तः।
देवोत्थापनी एकादशी और तुलसी विवाह के कथित दिन श्रेष्ठतम अबूझ मुहूर्त कहे गये हैं। इनमें किसी प्रकार का कोई दोष नहीं है। भद्रा दोष, गुरु-शुक्र अस्तादि दोष में भी तुलसी विवाह सम्पन्न करवाया जाना चाहिए।
तुलसी विवाह तो घर में अशौच आदि अशुचिता होने पर भी दूसरों से भी करवाया जा सकता है।-
इदं शुक्रास्तादौ अपिकार्यम्।
आशौचे तु पूजामन्येन कार्यम्।
परन्तु अशुद्ध समय में एकादशी उद्यापन तो भूलकर भी नहीं करें।-
वाप्यारामतडागकूपभवनारम्भ...
कार्तिकी पूर्णिमा से पांच दिन पहले और पांच दिन बाद तक का शुभ समय कहा गया है।यथा-
दिवसा: पंच पूर्वे हि निर्गमे पंच वासरा:।
कारयेल्लग्नमेतेषु धनधान्ययुतो भवेत्।
तुलसी विवाह गुरु-शुक्रास्त व भद्रा आदि दोष में भी कर्त्तव्य हैं। अबूझ मुहूर्त में भी इनका दोष लोक व्यवहार में स्वीकार्य नहीं है।
घर में आशौच ( अशुद्धि ) हो जाए तो अन्य प्रतिनिधि से तुलसी विवाह सम्पन्न करवाया जा सकता है।
अतः इस वर्ष 01 नवम्बर को एकादशी का व्रत और 02 नवंबर को देवोत्थापन एकादशी मानते हुए इसी दिन विवाहादि के अबूझ मुहूर्त सम्पन्न कर सकते हैं।
प्रश्न पैदा होता है कि इस दिन कोई तुलसी विवाह करें या अबूझ विवाह करें तो भद्रा दोष में फेरे और पूजन आदि कैसे करेंगे। तुलसी विवाह रविवार को विचारणीय है। अन्य वारों में तो कोई शंका ही नहीं है। तुलसी विवाह में रविवार का दोष नहीं लगता है।
स्पष्ट है अबूझ मुहूर्त के लिए पूरा दिन रात ग्राह्य है। और अबूझ मुहूर्त में उदयव्यापिनी तिथि ही साकल्य रूप से प्रतिपादित कही गयी है।
अबूझ मुहूर्त में किसी भी प्रकार के तिथि वार नक्षत्र योग करण लग्नबल, चन्द्र गुरु सूर्य त्रिबल की कोई भी आवश्यकता नहीं है।
अबूझ मुहूर्त वही है जो किसी से ना पूछा जाए। अबूझ मुहूर्त में उदयव्यापिनी तिथि की ग्राह्यता है। जो इस बार दृक् पद्धति से 02.11.2025 रविवार को ही है। सौर पक्षीय पंचांगों से 01 नवम्बर को है।
पंचांग भेद से यदि कोई भिन्नता हो तो एकादशी का व्रत और तुलसी विवाह तदनुसार कहा गया है।
तिथि वृद्धि शास्त्रों में मल संज्ञक है। एकादशी तिथि वृद्धि शुभ होती है और व्रत भी वृद्धि हुई दूसरे दिन वाली एकादशी का ही करना चाहिए।
कार्तिक शुक्ल एकादशी व्रत के पारण के साथ ही चातुर्मास्य व्रत की समाप्ति अभिहित है।
शान्तानुकूलपवनश्च शिवश्च पन्था:
तनोतु न: शिव: शिवम्
डॉ. कौशल दत्त शर्मा, ज्योतिषाचार्य
सेवानिवृत्त प्राचार्य - संस्कृत शिक्षा
नीम का थाना राजस्थान
9414467988
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